
Book review : Siddhartha – The Boy Who Became The Buddha
They say that sometimes the journey is more interesting than the destination. This couldn’t have been truer for Buddha. The world today knows him as
‘घर आया है फ़ौजी, जबसे थमी है गोली सरहद पर
देर तलक अब छत के ऊपर सोती तान मसहरी धूप’
मूल रूप से बिहार के रहने वाले गौतम राजऋषि जी भारतीय सेना में कर्नल रैंक पर पदस्थापित हैं। गौतम जी की अधिकांश पोस्टिंग कश्मीर के इलाके में, नियंत्रण रेखा की निगरानी करते हुए गुज़री है, जहाँ कई मुठभेड़ में उनकी सक्रिय भागीदारी रही है।
गौतम जी ने अब तक दो किताबें लिखीं हैं। पाल ले इक रोग नादाँ जो की एक ग़ज़ल संग्रह है और हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज, एक कहानी संग्रह जिससे आपको फ़ौजियों के जीवन की झलक मिलेगी। हैं न बन्दूक और कलम का दिलचस्प कॉम्बिनेशन ? आइये उनसे करते हैं चंद बातें -
आपके लिखने का सफ़र कैसे शुरू हुआ? वो क्या बात थी जिसने आपको लिखने के लिए प्रेरित किया?
लिखने के सफ़र की जहाँ तक बात है तो घर में हमेशा से हिन्दी की साहित्यिक किताबों को पढ़ने-पढ़ाने का माहौल था। दादी मेरी रामायण और महाभारत के क़िस्से सुनाया करती थीं और उन्हीं की वज़ह से सातवी – आठवीं कक्षा में ही पूरी रामायण और महाभारत पढ़ गया था । हिन्दी साहित्य के तमाम बड़े लेखकों की किताब का बहुत ही बड़ा संकलन रहा घर में । आठवीं – नौवीं तक तो मैं प्रेमचंद की सारी कहानियाँ और उपन्यास पढ़ चुका था । उन्हीं किसी बौराये से दिनों में डायरी लेखन की आदत पड़ी जो आज तक बदस्तूर ज़ारी है । लिखना सुकून देता था (है) … एक ख़ास अपना ‘पैरेलल वर्ल्ड’ जिसका सर्वेसर्वा मैं होता हूँ ।
आजकल अंग्रेजी लेखन का काफी चलन है। मगर आपने हिंदी को चुना। कोई ख़ास वजह?
कितनी भी अँग्रेजी बोल लूँ और अपने प्रोफेशन में उसका इस्तेमाल कर लूँ, किन्तु तमाम सोचों और ख़यालों की सारी की सारी परतें पर तो हिन्दी का ही आधिपत्य है और रहेगा । जैसा कि ऊपर बताया कि बचपन से ही हिन्दी साहित्य की तरफ़ ज़बरदस्त आकर्षण पल बैठा था तो लेखनी ने हिन्दी का ही लिबास पहनना ही पहनना था ।
हिंदी को तीन शब्दों में कैसे परिभाषित करेंगे?
बस … हिन्दी हैं हम
आपने कवितायें और कहानियां दोनों लिखीं हैं। एक लेखक के तौर पर इन दोनों शैलियों में आपको क्या फ़र्क नज़र आता है ?
कविताओं से इश्क़ प्राथमिक कक्षाओं से ही रहा । हिन्दी के सिलेबस में शामिल कविताओं को रटना और सस्वर पाठ करना आदतों में शुमार था । फिर छंद से लगाव हुआ तो ग़ज़लें लिखने लगा । कहानियाँ ख़ुद ब ख़ुद चल कर आयीं मेरे पास और इक रोज़… बहुत साल पहले उदय प्रकाश की ‘पीली छतरी वाली लड़की’ पढ़ कर लगा कि शायद मेरे पास भी सलीक़ा है कहानी सुनाने का । दोनों शैलियों में फ़र्क़ तो है ही । मेरी कविता कि मैं छंद में लिखता हूँ तो विधा का अनुशासन बाँधे रखता है, वहीं कहानी मुझे विस्तृत आकाश देती है स्वछंद उड़ने के लिये ।
अपनी किताबों के बारे में कुछ बताएं।
मेरी दो किताबें आयी हैं अब तक । पहली “पाल ले इक रोग नादाँ” ग़ज़लों की किताब है, जिसे पाठकों का भरपूर प्यार मिला…ख़ासतौर पर युवा पाठकों का कि मेरी ग़ज़ल आसपास की बातों को आसपास की भाषा में कहने की कोशिश करती है । दूसरी किताब “हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज” जो अभी-अभी बस कुछ महीने पहले ही आयी है, कहानियों की किताब है । ये कहानियाँ सारी की सारी सैन्य जीवन पर आधारित हैं… सैनिकों की अलग सी कहानियाँ हैं । अमूमन छाती पीटती देशभक्ति और बाँहें फुलातीं वीरता की कहानियों से परे, ये कहानियाँ सैनिकों की ज़िन्दगी की उन परतों को सामने लाती हैं, जिसके बारे में लोगों को नहीं पता ।
अपनी आने वाली किताबों के बारे में कुछ बताना चाहेंगे?
आने वाली तीन किताबों पर काम चल रहा है । एक तो ग़ज़ल संग्रह ही है और दूसरी किताब “फ़ौजी की डायरी” होगी, जो फिलहाल हर महीने पिछले डेढ़ साल से कथादेश में छप रही है । ये दोनों किताबें राजपाल एंड संस से आनी हैं । इसके अलावा एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ ।
क्या कोई ऐसी किताब है जिसे पढ़कर ऐसा लगा हो कि ‘काश! ये किताब मैंने लिखी होती!’?
निसंदेह, कई किताबें हैं ऐसी तो । “पीली छतरी वाली लड़की” तो इस फ़ेहरिश्त में हमेशा अव्वल रहेगी । मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास “शिगाफ़” पढ़ा तो धक से लगा कि उफ़ ये मैंने क्यों नहीं लिखा । इसके अलावा एक और किताब का ज़िक्र करना चाहूँगा, जिसे जाने कितनी बार पढ़ चुका हूँ और ताउम्र पढ़ता रहूँगा… वो है एरिक सिगल की “लव स्टोरी” ।
आपके विचार से, एक लेखक की सफलता में सोशल मिडिया का कितना योगदान होता है?
सोशल मीडिया का प्रभाव तो है निश्चित रूप से आजकल लेखकों की पहुँच बनाने में । पाठकों तक पहुँचना आसान हो गया है इसकी वज़ह से और एक लेखक की सफलता यही तो होती है ना कि वो अपनी पहुँच कितने पाठकों तक बना पाता है।
क्या आप लिखने के लिए किसी ख़ास नियम का पालन करते हैं?
नियम… ऐसा कुछ बंधा-बंधाया सा तो है नहीं । जिस प्रोफेशन में हूँ, उसकी अपनी अलग ही व्यस्तताएँ हैं । इन व्यस्तताओं में समय निकाल कर लिख पाना कई बार बहुत ही मुश्किल हो जाता । कभी महीनों तक नहीं लिख पाता । हाँ, जब समय की उपलब्धता रहती है तो पूरी कोशिश करता हूँ कि रोज़ कम से कम सात सौ- हज़ार शब्द लिखूँ ।
नए अथवा अभिलाषी लेखकों के लिए आपका क्या सन्देश होगा?
बस ये कि ख़ूब ख़ूब पढ़िये । लिखने से पहले पढ़िये…विशेष कर क्लासिकल साहित्य और समकालीनों का लिखा । एक किताब लिखने से पहले, आपको कम से कम हज़ार किताबों से गुज़रना चाहिये ।
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